अंदमान द्वीप के जारवा संपन्नता का जीवन जी रहे हैं। उनके जंगल उन्हें अपनी ज़रूरत से ज़्यादा देते हैं।- आंविता अब्बी, प्रोफेसर, भाषाविज्ञान, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली -
आदिवासी लोग पिछड़े हुए नहीं है, और उन्हें पीछे छोड़ा नहीं गया है। वे अपने तरीकों से, अपनी ज़मीन पर, अपनी मर्ज़ी से रहते हैं।
स्वाभिमानी हैं पर आदिम नहीं|
बाहरी लोगों का आना और हमें विकास के बारे में पढ़ाना पागलपन है। क्या यह विकास हमारे माहौल – जो हमें खाना, पानी और गरिमा देता है – को नष्ट करने से ही संभव है? नहाने के लिए, खाना खाने के लिए, और पानी पीने के लिए पैसे देने पड़ते हैं। हमारे यहाँ हमें पानी खरीदने की कोई ज़रूरत नहीं, और हम कहीं भी मुफ़्त में खा सकते हैं। - लोडुसिकाका, डोंगरिया कोंध
समुदायों ने अपनी ज़मीन पर एक साथ मिल-जुलकर अच्छी तरह से रहने के लिए जटिल तरीके बनाये हैं। भले ही आर्थिक दृष्टि से वे ग़रीब हो सकते हैं, अपनी ज़मीन पर रहने वाले ये आदिवासी लोग दूसरे तरीकों से हमसे खुशहाल होते हैं। इन समुदायों के अपने समाज और जीवनशैली पर गर्व करने के अच्छे कारण हैं।
हम शहर जाना नहीं चाहते हैं, हम खाना खरीदना नहीं चाहते हैं। हमें यहाँ सब कुछ मुफ़्त में मिलता है।मलारी पूसका, डोंगरिया कोंध
हमारे सुमदाय में औसत आयु अब 60-65 साल के आसपास है। इससे पहले यह 80 से 90 साल थी। यह इसिलए क्योंकि पहले हम लोग जंगल में मिलने वाले ताज़े फल, कंद-मूल आदि खाते थे, लेकिन अब जंगलों के उपयोग पर पाबंदी लग गयी है।मदेगॉवदा, सोलिगा
आपको लगता है कि हम ग़रीब हैं, लेकिन हम ग़रीब नहीं हैं। हम अपने प्रयासों से बहुत सारी अलग फसले उगाते हैं। बाबा महारिया, भील
हम कहतेहैं, ‘आपको हमारी देखभाल करने की कोई ज़रूरत नहीं। हम अपनी देखभाल खुद करेंगे। हम अपनी ज़िंदगी अपने हिसाब से, और अपने तरीके से ही जीएँगे’।अर्जुन चाँदी, माझी कोंध
हालिया अध्ययन हमें दिखाते हैं कि आदिवासी लोग दुनिया के सबसे खुशहाल लोग हैं – खानाबदोश मसाइ लोग उतने ही खुश हैं जितने दुनिया के सबसे अमीर करोड़पति लोग खुश हैं।
जनजातीय लोगों का जीवन स्थिर नहीं है, और आदिवासी लोग ’अतीत में फँसे हुए नहीं हैं – वे नये विचार को अपनाते हैं, और नये स्थितियों में हमारी तरह ही अपने-आप को बदलते हैं। हम सब 21 वी शताब्दी में जी रहे हैं। एक सरल पूर्वाग्रह के मारे हम सोचते हैं कि कुछ लोग आधुनिक हैं, और कुछ लोग पिछड़े हुए हैं।
यह पूर्वाग्रह उन्हें विस्थापित करने और ’मुख्यधारा में उन्हें धकेलने का औचित्य साबित करने के लिए प्रयोग किया जाता है – यह मानकर कि ‘विशेषज्ञ’ यह जानते हैं कि जनजातीय के लिए क्या अच्छा है।
इसका एक अनोखा नमूना माइनिंग कंपनी वेदानता रिसोर्सज का वह तर्क है जिसका उपयोग कंपनी ने अपने बचाव में यह जानते हुए किया कि उनकी खान गरिया कोंध की ज़िंदगी पर विनाशकारी प्रभाव डालने वाली है। डोंगरिया, कंपनी की ख़ान के खिलाफ एकजुट हैं, उन्होंने शुरू से वेदांता के विकास के दावों को नकारा
है। डोंगरिया अपनी ज़मीन पर अपने तरीके से ज़िंदगी जीना चाहते हैं।
अगर वे हमारे पहाड़ और जंगल छीनेंगे, तो हम अपने आत्मसम्मान खो देंगे। दूसरे आदिवासी लोग जिन्होंने अपने घर खो दिए, वे हताशा से मर रहे हैं, और उनका नाश हो रहा है। इससे पहले वे अपनी ज़मीन पर खेती कर रहे थे, लेकिन अब बेरोज़गारी में शराब की लत के शिकार हैं। वे भिखारियों की तरह हो गए हैं।- लोडुसिकाका, डोंगरिया कोंध
जारवा जिन्हें अक ‘आदिम’ और ‘निर्धन’के रूप में वर्णित जारवा जिन्हेंअक्सर ‘आदिम’ और ‘ग़रीब’ कहा जाता है, उनके पोषण और स्वास्थ्य पर हुए एक अध्ययन के अनुसार अपनी ज़मीन पर आत्मनिर्भर रहने वाले जारवा ‘सर्वोत्तम पोषण की स्थिति’ में पाए गए हैं। उन्हें 150 से ज़्यादा वनस्पतियों और 350 से ज़्यादा प्रजातियों के बारे में विस्तृत ज्ञान है। हालाँकि, उनके पड़ोसी, ग्रेट अंडमणी लोग, जिन्हें अँग्रेज़ों द्वारा ‘मुख्यधारा’ में लाकर उनकी ज़मीन से वंचित किया गया। उन्हें अनेक बीमारियों ने ख़त्म कर दिया और अब वे सरकार पर पूरी तरह से निर्भर हैं – उनके बचे-खुचे लोगों में शराब और क्षय रोग व्याप्त है।
ऐसा विचार किया जा रहा है की हमारी तरह जारवा लोगों को भी मुख्यधारा में लाना चाहिए। यदि जारवा लोगों को मुख्या धारा में लाया जाएगा, तब उनकी हालत भी हमारी जैसी ही हो जाएगी।नू, ग्रेट अंडमानी
जब जनजातीय लोगों की जमीन छीन ली जाती है, तब उनकी आत्मनिर्भरता, गरिमा और वह सब कुछ जो उनके जीवन को समृद्ध करता है, छिन जाता है। वे सब से ग़रीब बन जाते हैं
हमारी आदिवासी आबादी का पाँचवा हिस्सा पहले से ही सड़क पर है, लगभग 2 करोड़ लोग खो गए हैं, उन्हें उजाड़ा गया है, वे विस्थापित हो गए हैं या भटक रहे हैंराम दयाल मुंडा
आदिवासी लोगों की ज़मीनें अब भी चुराई जा रही है, उनके अधिकारों का उल्लंघन हो रहा है, और उनके भविष्य को नष्ट किया जा रहा है। और अब आदिवासी लोगों की भूमि-अधिकारों की रक्षा के लिए बना महत्वपूर्ण कानून खतरे में है। यह नहीं होना चाहिए। सिर्फ़ आदिवासी लोगों को ही फ़ैसला करना चाहिए कि उन्हें अपनी ज़िंदगी कैसे बितानी है और उनकी ज़िंदगी में कैसा बदलाव होना चाहिए।
हमारी ज़मीन ही हमारी मदद कर सकती है, न केवल हमारी, बल्की हमारे बच्चों की भी मदद कर सकती है। साल में दो या तीन बार फसल होती है। हम किसी पर निर्भर नहीं हैं। हम किसी भी कीमत पर अपनी ज़मीन नहीं देंगे।स पोल्लन्ना, अनन्तगिरी
We help tribal peoples defend their lives, protect their lands and determine their own futures.